कलाओं में देश-काल
26 अगस्त 2018
अशोक वाजपेयी
पुणे में, वहां दशकों सक्रिय रहीं कथक-विदुषी रोहिणी भाटे की स्मृति में, रज़ा फ़ाउंडेशन नादरूप संस्था के सहयोग से एक वार्षिक आयोजन ‘रोहिणी भाटे संवाद’ करता है. इस बार उसमें विचारणीय विषय था- ‘कलाओं में देश-काल’. डेढ़ दिनों के इस परिसंवाद में संगीत, नृत्य, ललित कला, सिनेमा और कविता में देशकाल पर विशेषज्ञों ने विचार किया, जिनमें से अधिकांश स्वयं उन विधाओं के कलाकार थे- सत्यशील देशपांडे, प्रभा मराठे और पार्वती दत्त, जसल ठकार, सुनील सुखतनकर, प्रफुल्ल शिलेदार. यह विषय यों ही नहीं चुना गया था. स्वयं रोहिणी जी ने इस अवधारणा पर और कलाओं के अंर्तसंबंध पर विस्तार और गहराई से विचार किया था. दूसरे, इन दिनों कलाओं के बीच अपनी अहंकारी स्वायत्तता के चलते लगभग अबोला हो गया है. श्रोताओं में बड़ी संख्या में मुख्यतः युवा कथक-कलाकार थे, जिन्होंने हर प्रस्तुति के बाद कई जिज्ञासाएं मुखर कीं.
देश-काल की अवधारणा ख़ासी पुरानी है और उस पर आधुनिकता से पहले भी हमारी परंपरा में विचार किया गया है. सभी कलाएं देश-काल से प्रभावित, उनकी सीमाओं में घटित और कुछ हद तक उनसे नियमित होती हैं. कुछ कलाओं जैसे संगीत और कविता में काल अधिक मुखर होता है, कुछ में देश जैसे ललित कला, कुछ में दोनों लगभग समान रूप से होते हैं जैसे नृत्य, रंगमंच. कई बार कोई कला इतनी कालबद्ध या देशबद्ध हो जाती है कि ऐसा काल या देश बीत या छूट जाने के बाद वह अप्रासंगिक हो जाती है जैसे राजनैतिक कविताएं या निरे अलंकरण के लिए की गयी कला. सच्ची कला में उनके देश-काल में धंसे होने के बावजूद उनका अतिक्रमण होता है- इसी कारण वह सार्वभौमिक और सार्वकालिक या कालजयी हो पाती है. कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ और शेक्सपीयर के ‘हेमलेट’ के देश और काल दोनों बीत चुके पर वे आज भी प्रासंगिक इसी कारण हैं.
कलाएं देश-काल को सघन, संक्षिप्त और संकेंद्रित करती हैं. किसी देश विशिष्ट या काल विशिष्ट की सूक्ष्मताएं, तनाव, सरोकार कलाओं में दर्ज़ होते हैं और कई बार उनमें एक तरह के नास्टेल्जिया के लिए रसिक उनके पास जाते हैं. स्मृति, कल्पना और सर्जनात्मकता कला के लिए ज़रूरी होते हैं. वे सभी देश और काल की सीमाओं में आकार लेते हैं.
पुणे के परिसंवाद में अमीर खां, कुमार गंधर्व, बिरजू महाराज, केलुचरण महापात्र, दिलीप चित्रे, वासुदेव गायतोंडे, गुलाम, रसूल संतोष, प्रभाकर बर्वे, वासुदेव गायतोण्डे, सेज़ां, मोने, कैण्डिस्की, पाल क्ले आदि के हवाले दिये गये जिनसे एक बड़ा समृद्ध और सघन वितान अपने आप रच गया और वैचारिकता को स्पन्दित आधार मिला. हर कलाकार अपने माध्यम के अनुकूल देश-काल में अपने को अवस्थित करता है. उसकी कला इस अवस्था सेे एहतराम, द्वन्द्व और तनाव, प्रश्नवाचकता आदि के रिश्ते बनाती है. कई बार यह रिश्ता भोंथरा भी हो जाता है पर जब सशक्त और विचारपूर्ण होता है तो उससे देश-काल आलोकित भी हो उठते हैं.
Link : https://satyagrah.scroll.in/article/119440/kabhi-kabhar-by-ashok-vajpeyi-26-august-2018
26 अगस्त 2018
अशोक वाजपेयी
पुणे में, वहां दशकों सक्रिय रहीं कथक-विदुषी रोहिणी भाटे की स्मृति में, रज़ा फ़ाउंडेशन नादरूप संस्था के सहयोग से एक वार्षिक आयोजन ‘रोहिणी भाटे संवाद’ करता है. इस बार उसमें विचारणीय विषय था- ‘कलाओं में देश-काल’. डेढ़ दिनों के इस परिसंवाद में संगीत, नृत्य, ललित कला, सिनेमा और कविता में देशकाल पर विशेषज्ञों ने विचार किया, जिनमें से अधिकांश स्वयं उन विधाओं के कलाकार थे- सत्यशील देशपांडे, प्रभा मराठे और पार्वती दत्त, जसल ठकार, सुनील सुखतनकर, प्रफुल्ल शिलेदार. यह विषय यों ही नहीं चुना गया था. स्वयं रोहिणी जी ने इस अवधारणा पर और कलाओं के अंर्तसंबंध पर विस्तार और गहराई से विचार किया था. दूसरे, इन दिनों कलाओं के बीच अपनी अहंकारी स्वायत्तता के चलते लगभग अबोला हो गया है. श्रोताओं में बड़ी संख्या में मुख्यतः युवा कथक-कलाकार थे, जिन्होंने हर प्रस्तुति के बाद कई जिज्ञासाएं मुखर कीं.
देश-काल की अवधारणा ख़ासी पुरानी है और उस पर आधुनिकता से पहले भी हमारी परंपरा में विचार किया गया है. सभी कलाएं देश-काल से प्रभावित, उनकी सीमाओं में घटित और कुछ हद तक उनसे नियमित होती हैं. कुछ कलाओं जैसे संगीत और कविता में काल अधिक मुखर होता है, कुछ में देश जैसे ललित कला, कुछ में दोनों लगभग समान रूप से होते हैं जैसे नृत्य, रंगमंच. कई बार कोई कला इतनी कालबद्ध या देशबद्ध हो जाती है कि ऐसा काल या देश बीत या छूट जाने के बाद वह अप्रासंगिक हो जाती है जैसे राजनैतिक कविताएं या निरे अलंकरण के लिए की गयी कला. सच्ची कला में उनके देश-काल में धंसे होने के बावजूद उनका अतिक्रमण होता है- इसी कारण वह सार्वभौमिक और सार्वकालिक या कालजयी हो पाती है. कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ और शेक्सपीयर के ‘हेमलेट’ के देश और काल दोनों बीत चुके पर वे आज भी प्रासंगिक इसी कारण हैं.
कलाएं देश-काल को सघन, संक्षिप्त और संकेंद्रित करती हैं. किसी देश विशिष्ट या काल विशिष्ट की सूक्ष्मताएं, तनाव, सरोकार कलाओं में दर्ज़ होते हैं और कई बार उनमें एक तरह के नास्टेल्जिया के लिए रसिक उनके पास जाते हैं. स्मृति, कल्पना और सर्जनात्मकता कला के लिए ज़रूरी होते हैं. वे सभी देश और काल की सीमाओं में आकार लेते हैं.
पुणे के परिसंवाद में अमीर खां, कुमार गंधर्व, बिरजू महाराज, केलुचरण महापात्र, दिलीप चित्रे, वासुदेव गायतोंडे, गुलाम, रसूल संतोष, प्रभाकर बर्वे, वासुदेव गायतोण्डे, सेज़ां, मोने, कैण्डिस्की, पाल क्ले आदि के हवाले दिये गये जिनसे एक बड़ा समृद्ध और सघन वितान अपने आप रच गया और वैचारिकता को स्पन्दित आधार मिला. हर कलाकार अपने माध्यम के अनुकूल देश-काल में अपने को अवस्थित करता है. उसकी कला इस अवस्था सेे एहतराम, द्वन्द्व और तनाव, प्रश्नवाचकता आदि के रिश्ते बनाती है. कई बार यह रिश्ता भोंथरा भी हो जाता है पर जब सशक्त और विचारपूर्ण होता है तो उससे देश-काल आलोकित भी हो उठते हैं.
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